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आलेख – मौत के मुंह में जाएंगे लेकिन स्वास्थ्य शिविर नहीं जाएंगे…

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में किड़नी प्रभावित सुपेबेड़ा के लोगो को मौत के मुंह से निकालने के लिए नयी सरकार ने पहल करते हुए गांव में स्वास्थ्य शिविर का आयोजन किया लेकिन ग्रामीणों का रवैया स्वास्थ्य शिविर को लेकर नकारात्मक ही रहा। वह कहते है न कि जब एक बार भरोसा उठता है तो दोबारा भरोसा करना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है ऐसा ही सुपेबेड़ावासियों के साथ हुआ। पहले तो सरकार ने स्वाथ्य सुविधा मुहैया कराने का वादा किया और फिर पुरानी सरकार ने कर दी वादाखिलाफी, जी हां पुरानी सरकार ने सुपेबेड़ा के लोगों को जब स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर ठेंगा दिखाया तो लोगों ने भी सरकार पर से भरोसे की चादर उठा ली और इसका सिला  नई सरकार को मिला।
ऐसा इसीलिए क्योंकि 3 साल में 68 मौते, 200 से ज्यादा प्रभावित, 900 की आबादी वाले सुपेबेड़ा गांव की आजकल यही पहचान बन चुकी है, किडनी की बीमारी से लगातार मौतों और बढ़ते मरीजों से गांव में दहशत बनी हुई है, पिछली सरकार ने भी ग्रामीणों को हर संभव मदद का भरोसा दिलाया लेकिन ग्रामीणों को कोई राहत नही मिली। लेकिन जब ग्रामीणों ने नयी सरकार से यानि कांग्रेस से गुहार लगायी तो मुख्यमंत्री के निर्देश पर रायपुर के विशेषज्ञ डॉक्टरों की टीम ने आज गांव में पहुंचकर हालात का जायजा लिया। वहीं नफ्रोलॉजिस्ट डॉ. पुनीत गुप्ता ने इस दौरान 16 मरीजों को देखा और 4 मरीजों को रायपुर रेफर करने की सलाह दी।
अब बात की जाए जांच की तो जांच करवाने में नई सरकार ने किसी प्रकार की कोई कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन उस जांच के बाद जो क्रियान्वयन होना चाहिए था वह एस प्रकार का नहीं हो पाया। जैसे पीएचई विभाग पानी की जांच कर चुका है, इंदिरा गॉधी कृषि विश्वविद्यालय मिट्टी का परीक्षण कर चुका है, मुम्बई के टाटा इंस्टीटयूट और दिल्ली के डॉक्टर भी अपने स्तर पर जांच कर चुके है। बता दें कि पीएचई विभाग ने पानी की जो जांच की थी उसमें उन्हें फ्लोराइड और आरसेनिक की मात्रा ज्यादा होना पाया गया था उसके समाधान के लिए गांव में फ्लोराइड रिमुवल प्लांट लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गॉधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा की गयी मिट्टी की जांच में हैवी मैटल पाये गये थे, जिसमें कैडमियम और क्रोमियम की भी ज्यादा मात्रा होना शामिल था, उसकी रिपोर्ट ना तो पीएचई विभाग के पास उपलब्ध है और ना ही इन हैवी मैटल से बचने के लिए कोई रोकथाम की गयी है और सरकार के इसी रवैये से जनता सरकार से असंतुष्ट हो चुकी है।
उसी का परिणाम शिविरों में भी देखने को मिला, गिने चुने मरीज ही शिविर में पहुंचे, यहां तक की स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों द्वारा घर घर जाकर मरीजों को स्वास्थ्य शिविर में जाने के लिए आग्रह किया मगर उसके बाद भी मरीजो ने कोई रुचि नही दिखाई, कारण साफ है कि मरीजो को शिविर भी अब केवल फोटोसेशन का एक हिस्सा लगने लगा है, अब तक ना जाने कितने शिविरों और आश्वासनों के बाद भी ग्रामीण वही पुरानी समस्याओं से जूझ रहे है। तीन साल में सुपेबेडा के लिए दावे तो बड़े बड़े हुए मगर गांव के हालात नहीं बदले ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नयी सरकार सुपेबेड़ावासियों की उम्मीदों पर कितनी खरी उतरती है।

इस लेख की लेखक ज्योति मिश्रा फ्रीलांस जर्नलिस्ट  ग्वालियर (म.प्र.) है

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